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कविता

एकोहम बहुस्यामि

सर्वेश सिंह


बटुक ने उसे पंचामृत में डुबोया
और आरण्यकों में प्रक्षिप्त कर दिया
पुजारी ने लपेटा गेरुवे में
और आरती की थाल में सजा दिया
एक बूढ़े समीक्षक ने परखा बहुरंगी चश्मों से   
और इतिहास के ऊपर उछाल दिया 
जब हाथ आई एक चौड़े जननायक के 
तो उसने नारे में बदल दिया
छात्रों ने उसके कतरों में पाए संदर्भ  
पढ़कर ठहर गया बंझा को गर्भ
ब्राह्मण ने लगाई पुराणों की दौड़
क्षत्रिय का अश्व लेकर भागा चित्तौड़
बनिए की तिजोरी की चोर बन गई  
शूद्र की थाली का कौर बन गई 
देवताओं की अमृत बनी
असुरों का विष 
शाला की मंत्र बनी 
वामा का तंत्र
बुद्ध का दुख हुई
गौतम का न्याय
कबीर का क्रोध बनी
तुलसी की सहाय 
कोई मक्का लेकर भागा
कोई काशी
कहीं कठौते की गंगा बनी
कहीं सत्यानाशी
बिस्तर पर कामसूत्र बनी
कुरुक्षेत्र की गीता
किसी ने केवल राम देखा
किसी ने सीता
रूस हुई फ्रांस हुई
हुई भगवा और वाम
कभी केवल रूप हुई
कभी केवल नाम
कविता तो एक थी
बस सुविधा की व्याख्याओं से
बहुस्यामि हो गई...
 


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